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त्रैमासिक - आठवां संस्करण (द्वितीय वर्ष) | जुलाई, 2012 |
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अनुक्रमणिका | हमारा संस्थान | |||||||||||||||||||
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संस्थान में पंचायतराज मंत्रालय भारत शासन के अतिरिक्त सचिव, श्री अशोक कुमार अंगुराना का आगमन | ||||||||||||||||||||
संस्थान में दिनांक 30 मई 2012 को पंचायतराज मंत्रालय भारत शासन के अतिरिक्त सचिव, श्री अशोक कुमार अंगुराना का आगमन हुआ। यू.एन.डी.पी.-सी.डी.एल.जी. प्रोजेक्ट में उमरिया जिला के फेस-I हेतु समावेश, एन.जी.ओ. भोपाल को उमरिया जिले के सभी ग्राम पंचायत सरपंचों का प्रोफाईल तैयार करने के कार्य का श्री अंगुराना द्वारा समीक्षा बैठक ली गई। इस बैठक में श्री गुलशन बामरा कलेक्टर, जबलपुर, श्री संजीव शर्मा, नेशनल प्रोजेक्ट मैनेजर यू.एन.डी.पी.-सी.डी.एल.जी. प्रोजेक्ट, नई दिल्ली, जिला पंचायत सी.ई.ओ. उमरिया, संस्थान के संचालक श्री निलेश परीख, उपसंचालक |
श्री संजीव सिन्हा व संस्थान के अधिकारी और संकाय सदस्य भी शामिल हुये। इसी के साथ उमरिया प्रोजेक्ट के फेस-II पर विस्तार से चर्चा की गई। चूंकि संस्थान का क्षमता विकास व प्रशिक्षण के क्षेत्र में लम्बा अनुभव रहा है इस लिये बैठक में उमरिया प्रोजेक्ट के फेस-II का क्रियान्वयन संस्थान द्वारा किये जाने का निर्णय लिया गया। फेस-II का उद्देश्य उमरिया जिले की सभी 127 महिला ग्राम पंचायत सरपंचों का प्रशिक्षणों व अन्य नवीन गतिविधियों के माध्यम से नेतृत्व क्षमता का विकास, ग्राम सभा द्वारा ग्राम के विकास में उनकी भूमिका को सक्रिय करते हुये विकास के कार्यों में उनकी भूमिका बढ़ाने हेतु प्रयास किये जायेगें।
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स्व-सहायता समूह सदस्यों के संघर्ष की कहानी | ||||||||||||||||||||
तरूण संस्कार संस्था जबलपुर द्वारा एवार्ड संगठन के सहयोग से महात्मा गाँधी राज्य ग्रामीण विकास संस्थान, मध्यप्रदेश, जबलपुर में दिनांक 28-30 जून 2012 की अवधि में ‘‘पंचायतों के माध्यम से नारी-सशक्तिकरण’’ विषय पर कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में उपस्थित पंचायत की महिला प्रतिनिधियों, स्वसहायता समूह की सदस्यों एवं स्वयं सेवी संस्थाओं के प्रतिनिधियों से दिनांक 30-6-12 को मेरी चर्चा हुई थी। चर्चा के दौरान ग्राम कुसमी ग्राम पंचायत हिरसिंधारी, जनपद पंचायत निवास, जिला मण्डला, मध्यप्रदेश से आयीं रानी दुर्गावती स्वसहायता समूह की अध्यक्ष श्रीमती प्रेम बाई द्वारा समूह सदस्यों के संघर्ष से संबंधित उनके अनुभव से प्रेरणा मिली कि एक स्व-सहायता समूह की महिला सदस्यों के जुझारूपन, संघर्ष, एकजुटता और धैर्य के कारण समूह सदस्य जहां एक ओर अपना हक ले पायीं, वहीं दूसरी ओर उनकी आर्थिक स्थिति में भी सकारात्मक प्रभाव हुआ। ग्राम कुसमी में एक तालाब है। इस तालाब में ग्राम पंचायत सरपंच द्वारा विगत दस वर्षो से मछली पालन की गतिविधि की जा रही थी। रानी दुर्गावती स्वसहायता समूह, के सदस्यों द्वारा ग्राम पंचायत में आवेदन दिया गया कि इस तालाब में पंचायत द्वारा मछली पालन की गतिविधि अनाधिकृत रूप से की जा रही है। तालाब के आधिपत्य को लेकर भी समूह द्वारा सवाल खड़े किये गये थे। ग्राम सभा में समूह सदस्यों द्वारा सरपंच से पूछा गया कि यह तालाब किस के अधीन है। इस प्रश्न का कोई भी उत्तर सरपंच द्वारा नहीं दिया गया। समूह सदस्यों द्वारा तालाब से संबंधित अभिलेखों की पड़ताल कराई गई जिससे यह पता चला कि यह तालाब ग्राम पंचायत के नाम नहीं है और विगत 10 वर्षों से सरपंच बिना पट्टा के मछली पाल रहा है और पैसा कमा रहा है। समूह की सभी सदस्यों द्वारा समूह की बैठक आयोजित की गई जिसमें तालाब में मछली पालन की गतिविधि करने के लिए पट्टा प्राप्त करने का निर्णय लिया। यह प्रस्ताव बना कर वर्ष 2004 में ग्राम सभा में प्रस्तुत किया गया। कुछ पंचायत के प्रतिनिधि और ग्रामवासी इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे, और उन्होनें उस समय स्वसहायता समूह को तालाब का पट्टा देने पर नाराजगी प्रकट की और वे सभी विरोध करने लगे। समूह के द्वारा लगातार प्रयास किया गया। इस पर ग्राम पंचायत द्वारा एक कच्चा प्रस्ताव बना कर समूह को दे दिया। उस प्रस्ताव के आधार पर समूह के सदस्य तालाब में मछली पालन की गतिविधि कर सकते थे। पंचायत के प्रस्ताव की प्रति मिलने के बाद दिनांक 30-6-2005 को समूह के द्वारा 10,000 मछली के बीज तालाब में डाले गये। जब मछली निकालने का समय आया तो कुछ पंचायत के प्रतिनिधि और गांव के लोग तालाब से मछली निकालने पहुँच गये। मछली निकालने पहुंचें लोगों से समूह की महिला सदस्यों ने पूछा कि तुम मछली क्यों निकाल रहे हो इस पर उलटा उन पंचायत प्रतिनिधियों और ग्रामवासियों द्वारा समूह सदस्यों से पूछा गया कि तुम समूह वालों को मछली पालन गतिविधि करने का अधिकारी किसने दिया। यह तालाब तो गांव वालों का है और हम उसमें से मछली निकालेगें। |
उन पंचायत प्रतिनिधियों और ग्रामवासियों से समूह के सदस्य बहुत निराश हो गये। ऐसे संकट के समय में वे सभी महिला सदस्य, तरूण संस्कार संस्था, जबलपुर और कामयाब युवा संस्कार समिति, जबलपुर के प्रतिनिधियों से मिली तथा अपनी समस्या बताई। समिति द्वारा उन्हें मदद करने का आश्वाशन दिया गया। समूह के पास ग्राम पंचायत का प्रस्ताव, पावती आदि कागजात थे। समिति के प्रतिनिधियों की मदद से समूह के द्वारा सभी कागजातों के साथ मछली निकालने वाले एक ग्रामवासी के नाम पर रिपोर्ट लिखाने के लिए पुलिस थाने पहुंचें। पुलिस थाने में थाना प्रभारी द्वारा कागजात देखने के बाद पुलिस वाले ग्राम कुसमी के तालाब के पास पहुंचें। वहां पहुंचकर गांव के एक ग्रामवासी द्वारा आरोपी को बुलाया गया। उनसे पूछताछ में यह पता चला कि वह किसी अन्य ग्रामवासी के कहने पर तालाब में मछली निकालने गये थे। इस प्रकार से अनाधिकृत रूप से मछली निकालने वालों की सूची में नाम बढ़ते और बहुत सारे ग्रामवासी के नाम सामने आये। पुलिस द्वारा सभी अनाधिकृत कार्य से जुड़े ग्रामवासियों के विरूद्ध मामला दर्ज किया गया। उनमें से 2 ग्रामवासी को पुलिस थाने बुलाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जेल भेज दिया गया। बाद में उनकी जमानत उनके साथियों द्वारा करा ली गई। यह मामला लगातार 2 वर्षो तक यह मामला कोर्ट में चला। जब यह मामला कोर्ट में चल रहा था उस समय कुछ गांव के लोगों द्वारा स्वसहायता समूह की सदस्यों को तरह-तरह के ताने दिये जाते थे। महिला सदस्यों को उन ग्रामवासियों द्वारा कई तरह के दबाव, मारने-पीटने, घमकाने, गांव से बाहर करने के प्रयाय भी किये गये। महिला सदस्यों पर अपनी शिकायत वापिस लेने की हरसंभव कोशिश होने लगी। महिला सदस्यों के पति भी धीरे-धीरे साथ छोड़ते जा रहे थे। ऐसी परिस्थिति में भी महिला सदस्यों ने हिम्मत नहीं छोड़ी और वे सभी एकजुट रहीं। वे कहती थी कि मरेगें तो सभी सदस्य साथ ही मरेगें परन्तु अपना हक लेकर रहेगें। महिला सदस्यों के पास अपने आय साधन भी नहीं थे। ऐसी स्थिति में समूह की सदस्य श्रीमती आशा बाई ने बांस की टोकनी बनाने और अन्य 9 महिला सदस्यों ने बांस की टोकनियों को बेचने का काम प्रारम्भ किया गया। इस तरह से उनकी कमाई का जरिया बना रहा। लगभग 2 वर्षो तक मामला कोर्ट में चला। हर पेशी में सभी दसों महिला सदस्य जाती थीं। इसके बाद कोर्ट का फैसला आया। फैसले में कोर्ट द्वारा स्वसहायता समूह को 10 वर्ष के लिए तालाब में मछली पालने का पट्टा दिया गया। वर्तमान में समूह ने हर साल 10 से 15 हजार मछली के बीज छोड़ी और मछलियों को पाला। मछली पालन से उनकी आय का एक बड़ा जरिया बन गया। समूह की महिलाऐं अब तीन तरह के काम करती हैं। पहला मछली पालन, दूसरा बांस की टोकनी तथा लेन्टाना का फर्नीचर बनाना और तीसरा मध्यान्ह भोजन बनाना। स्वसहायता समूह के इस संघर्ष में सहयोगी बने तरूण संस्कार संस्था जबलपुर और कामयाब युवा संस्कार समिति जबलपुर के प्रतिनिधि। समूह को मार्गदर्शन श्री त्रिलोक सिंह कोकड़े द्वारा सहयोग दिया गया। कहानी की सीखयह कहानी हमें स्वहायता समूह सदस्यों की शक्ति, दृढ़ इच्छा, धैर्य, सहनशीलता, विषम परिस्थिति में संघर्ष करने का साहस की सीख देती है कि, किस तरह अपने संघर्ष के बल पर स्वसहायता समूह सदस्यों ने तालाब में मछली पालन हेतु पट्टा प्राप्त किया और अपनी आय का जरिया बनाया।
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चुने गये पंच-सरपंच वापस भी बुलाये जा सकते है | ||||||||||||||||||||
निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को मतदाताओं की इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए। यह उनकी नैतिक बाध्यता है, क्योंकि वही जनता उन्हें अपना प्रतिनिधि चुनती है। यदि निर्वाचित प्रतिनिधि जनता की इच्छाओं और अपेक्षाओं का सम्मान नहीं करें तथा साथ ही निरंकुश व्यवहार करे तो ऐसी निरंकुशता से निपटने के लिये राज्य के मौजूदा म.प्र. पंचायत एवं ग्राम स्वराज अधिनियम 1993 में वर्ष 1999 में एक संशोधन के माध्यम से निर्वाचित जनप्रतिनिधियो को वापस बुलाये जाने का अधिकार राईट टू काल को मूल अधिनियम की धारा 21-(क) में संस्थापित किया गया है और अभी यह प्रावधान त्रिस्तरीय पंचायत राज्य संस्थाओं में ग्राम पंचायतों के पंचों या सरपंच के लिये ही लागू किये गये है। निर्वाचित पंच या सरपंच को वापस बुलाने के लिए ग्राम पंचायत के भीतर ग्रामसभा का गठन करने वाले सदस्यों की कुल संख्या के आधे से अधिक सदस्य के बहुमत द्वारा गुप्त मतदान की प्रक्रिया अपनायी जाती है। ऐसी प्रक्रिया के लिए यह अनिवार्य है, कि ग्रामसभा के कुल सदस्यों के कम-से-कम एक तिहाई सदस्यों द्वारा सूचना पर हस्ताक्षर कर विहित प्राधिकारी को प्रस्ताव दिया जाय। ग्राम पंचायत के सरपंच या ग्राम पंचायत के पंच को वापस बुलाने की शक्ति को प्रयोग के संबंध में समयावधि से जुड़ी दो वर्जनाएं भी अधिनियम की धारा-21 (क) की टिप्पणी में उल्लेखित है। इन वर्जनाओं के अनुसार किसी ग्राम पंचायत के सरपंच या पंच को जब वह आम निर्वाचन में निर्वाचित होकर पद संभालता है तब पदारूण होने की तारीख से ढ़ाई वर्ष के भीतर उसे वापस बुलाने की शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाएगा। |
इसी प्रकार कोई पंच या सरपंच यदि उपचुनाव में निर्वाचित होता है। तो तब भी जब तक आधी कालावधि समाप्त ना हो जावे तब तक वापस बुलाने की शक्ति का प्रयोग वर्जित ही रहेगा। वापस बुलाये जाने हेतु विशेष सम्मेलन में ग्राम पंचायत के भीतर ग्रामसभा का गठन करने वाले सदस्यों की कुल संख्या के आधे से अधिक सदस्यों द्वारा बहुमत प्राप्त करने हेतु गुप्त मतदान में भाग लेना होगा। तभी सरपंच या पंच अपने पद से वापस बुलाया जा सकेगा। यदि कोई पंच या सरपंच धारा 21 की किसी उपधारा के अधीन उसे वापस बुलाये जाने की वैधता पर आक्षेप करने की वांछा करता है। तो वह उस तारीख से जिसको की वह अपना पद रिक्त करता है 7 दिन के भीतर विवाद को विहित प्राधिकारी को निर्दिष्ट करेगा। विहित प्राधिकारी यथासंभव उस तारीख से जिस तारीख को उसे आक्षेप प्राप्त होगा उसे 30 दिन के भीतर विनिश्चत करेगा और यह विनिश्चय अंतिम होगा। इस कानूनी प्रावधान की व्याख्या में यह भी सुस्पष्ट है कि यदि इस प्रक्रिया का पालन कर किसी पंच/सरपंच को वापस बुलाने संबंधी प्रस्ताव को पारित कर दिया जाता है तो उस पंचायत ने उस पंच या सरपंच पद को रिक्त कर दिया समझा जावेगा। फिर चाहे इस प्रक्रिया की वैधता को चुनौती ही क्यों न दी गई हो।
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आपदा प्रबंधन | ||||||||||||||||||||
आपदा प्रगति में बाधा डालती है तथा बडी मेहनत और यत्नपूर्वक किए गए विकास संबंधी प्रयासों के फल को नष्ट कर देती है और प्रगति की और अग्रसर हो रहे राष्टों को कई दषक पीछे धकेल देती है। अतः हाल के समय में भारत में और विदेषों में आपदाओं के घटित होने पर ही कार्रवाई करने की बजाय उनके कुषल प्रबंधन की ओर अधिक ध्यान दिया गया है। इसका कारण आपदाओं की बारम्बारता में वृद्वि और तीव्रता की बात को इसी प्रकार स्वीकार करना है क्योंकि अब यह मान लिया गया है कि जिम्मेदार और सिविल समाज में सुशासन के लिए आपदाओं के विनाशकारी प्रभाव से प्रभावी रूप से निपटने की आवश्यकता है। आपदा प्रबंधन -आपदा से आशय प्राकृतिक अथवा मानव-जन्य कारणों से आने वाली किसी ऐसी विपत्ति, दुर्घटना, अनिष्ट और गंभीर घटना से है जो प्रभावित समुदाय की सहन क्षमता से परे हो। आपदा प्रबंधन में निम्नलिखित आवश्यक कार्यान्वयन संबंधी उपायों की सतत् और एकीकृत प्रक्रिया शामिल है।
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भारत मे आपदा प्रबंधन -
भारत में अलग-अलग तीव्रता वाली अनेक प्राक्तिक और मानव-जन्य आपदाएं आती रहती है। जैसे भूंकप, बाढ, चक्रवात और सुनामी, सूखा एवं पहाडी क्षेत्रों में भू-स्खलन एवं हिम-स्खलन का जोखिम बना रहता है। इसके अतिरिक्त रासायनिक जैविक विकिरण और नाभिकीय आपात स्थितियों की संभावना भी रहती है। आपदा जोखिमों में जनसंख्या वृद्वि, शहरीकरण और औद्योगीकरण, उच्च जोखिम क्षेत्रों में विकास, पर्यावरण असंतुलन और जलवायु परिवर्तन से भी जोडा जा सकता है। आपदाओं सें सर्वाधिक रूप से समाज के आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग गंभीर रूप से प्रभावित होते है। संवेदनशील समूहों में वृद्ध व्यक्तियों, महिलाओं, बच्चों विषेष रूप से आपदाओं के कारण निराश्रित महिलाओं और अनाथ बच्चों तथा विभिन्न क्षमताओं के व्यक्तियों को अधिक खतरा होता है। 23 दिसम्बर, 2005 को भारत सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 अधिनियमित करके एक उचित कदम उठाया। इस अधिनियिम में, आपदा प्रबंधन का नेतृत्व करने और उसके प्रति एक समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्टीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एन डी एम ए ), मुख्यमंत्रियों की अध्यक्षता में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों और कलेक्टर अथवा जिला मजिस्टेट (डी डी एम ए )के गठन की परिकल्पना की गई थी। विकास संबंधी लाभों को बनाए रखने तथा जीवन, आजीविका और संपत्ति के नुकसान को कम करने के लिए राहत-केन्द्रित कार्रवाई के पहले के दृष्टिकोण के स्थान पर अब सक्रिय रोकथाम, तैयारी आधारित दृष्टिकोण अपनाया जाएगा।
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बदलती तस्वीर | ||||||||||||||||||||
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दीना का ‘प्रेम वन’ | ||||||||||||||||||||
उसे यह नहीं मालूम है कि कोपेनहेगन में गरम हो रही धरती का ताप कम करने के लिये कवायद चली। उसे यह भी नहीं मालूम कि दुनिया भर से जंगल कम हो रहा है और उसे बचाने व नये सिरे से बसाने के प्रयास चल रहे हैं। उसे यह भी नहीं मालूम कि यदि जंगल बच भी गया तो उस पर कंपनियों की नजर गड़ी है। उसे मालूम है तो इतना कि पेड़ कैसे लगाये जायें और उन्हें कैसे बचाया जाये। पेड़ बचाने की धुन भी ऐसी कि एक छोटा जंगल ही लगा डाला। उसे नागर समाज की वन की परिभाषा भी नहीं मालूम लेकिन उसने बसा दिया ‘प्रेम वन’। दीना ने वन क्यों लगाया ? इस पर मंद-मंद मुस्कराते हुये बड़े ही दार्शनिक अंदाज में वे कहते हैं “जीवन में किसी न किसी से तो मोहब्बत होती ही है, मैंने पेड़ों से मोहब्बत कर ली।” दीना ने तभी तो इस वन का नाम रखा है ‘प्रेमवन’। मध्यप्रदेश के रीवा जिले के डभौरा कस्बे के पास धुरकुच गांव में रहते हैं दीनानाथ। दीनानाथ कोल आदिवासी हैं, दीनानाथ जंगलों को कटते देखते थे तो बड़े दुःखी होते थे। कुछ कर नहीं सकते थे तो सोचा कि जब वो काट रहे हैं, तो हम लगाने का काम क्यों ना करें। 1991 में पास ही के कोटा गांव में एक शादी समारोह के बाद उपयोग किये गये लगभग एक हजार आम की गुठलियों को दीनानाथ ने बीना। दीनानाथ बोरे में भरकर गुठलियां ले आये और अपनी खेती की जमीन पर ही लगा दी पलिया (नर्सरी)। पलिया तैयार हुई, पौधे बनने लगे लेकिन सवाल वही कि ये पौधे लगेंगे कहां और हिफाजत करेगा कौन! दीनानाथ ने वन लगाने का विचार गांव वालों के बीच रखा लेकिन गांव वालों ने न केवल इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया बल्कि उन्हें पागल भी करार दे दिया। लेकिन दीना पर तो जैसे वन लगाने का जुनून ही सवार था। उन्होंने पहले अकेले और बाद में अपनी पत्नी ननकी देवी के साथ मिलकर वन विभाग की जमीन पर बाड़ लगाना शुरू किया. उनका एक सूत्रीय कार्यक्रम था, पत्थर एकत्र करना और उसकी बाड़ बनाना। इधर नर्सरी में लगे पौधे बढ़ रहे थे, उधर दीना की बाड़ भी बढ़ रही थी। धीरे-धीरे कर दीना और ननकी ने 50 एकड़ के जंगल में बाड़ लगा दी। अब बारी थी पौधे रोपने की. हजार के हजार पौधे रोपे गये। तीन तरफ पत्थर की बाड़ और एक तरफ लकड़ी की बाड़। पेड़ तो लग गये लेकिन अब बचेंगे कैसे ? यानी सिंचाई कैसे होगी ! दीनानाथ और ननकी ने अपनी पीठ पर पीपा बांधकर पास के तालाब से पौधों में पानी देना शुरू किया। खेती बाड़ी भी चल रही थी और जंगल लगाने का सपना भी मन में था। पेड़ बड़े होने लगे और तभी वन विभाग को दीना के इस प्रसंग की भनक लग गई। अब चूंकि जमीन वन विभाग ने दीना को बिना अनुमति के वनक्षेत्र में बाड़ बनाकर वृक्षारोपण न करने की चेतावनी देकर बनाई गई बाड़ तोड़ दी और कुछेक पेड़ भी उखाड़ दिये गये। तीन-चार दिन के बाद दीना ने पत्नी ननकी के साथ मिलकर फिर से बाड़ सुधारी, पेड़ लगाये और पानी देने का सिलसिला चालू रखा। इस बार वन विभाग दीना के साथ सख्ती से पेश आया। लेकिन दीना ने स्पष्ट कर दिया कि न तो मुझे जमीन चाहिये और न ही इन पेड़ों के फल, यह तो जनता का वन है। दीना नई ऊर्जा के साथ फिर शुरू हुये अपने जंगल को बढ़ाने। अपनी अदम्य इच्छा शक्ति और पत्नी के साथ की बदौलत दीना ने हार नहीं मानी। |
आज दीना के इस प्रेमवन में आम, आंवला, महुआ, जामुन, बेल, बांस, शीशम, कत्था, अमरुद और कठहल आदि लगभग सात हजार पेड़ लगे हैं। लगभग 200 एकड़ जंगल में फैले इस वन के प्रत्येक पौधे को अपने हाथ से लगाया और सींचा दीना व ननकी ने। दीना व ननकी की अपनी कोई संतान नहीं है तो उन्होंने पेड़ों को बच्चा मान लिया। अपने पेड़ों को बचाने के संबंध में दीना कहते हैं “एक-एक पीपा पानी लाकर बचाया है मैंने इसे, तीन बार कुंआ खना लेकिन तीनों बार कुंआ ढह गया। आप चाहें तो आज भी आधा कुंआ देख सकते हैं। लेकिन मैंने हार नहीं मानी।” वे इस पूरे प्रयास में अपनी पत्नी ननकी बाई को साधुवाद देते हैं. वर्ष 2002 में तत्कालीन रेंजर ने दीना के प्रयास को बारीकी से देखा और कहा कि वन विभाग के नुमाइंदें तो तनख्वाह पाकर भी जंगल कटने देते हैं। तुम तो अजीब पागल हो ! फिर उन्हीं की अनुशंसा पर दीना को न केवल जंगल विभाग ने टोकना बंद किया बल्कि 900 रुपये मासिक पगार पर चैकीदार भी रख लिया। आज इस प्रेमवन में हिरन, सांभर, नीलगाय और मोर स्वच्छंद विचरण करते हैं। गांव वाले भी आते हैं, फल खाते हैं लेकिन दीना का स्पष्ट आदेश है कि आम खाओ, महुआ बीनो लेकिन पेड़ मत काटो। वनअधिकार कानून पास होने की जानकारी दीना को तो है लेकिन वो कहते हैं कि मुझे इसका दावा नहीं करना है। मुझे तो जंगल बचाना था, जंगल बचा रहा हूं। दीना ने विगत तीन वर्षों से एक भी नया पेड़ नहीं लगाया है। तीन सालों से सूखा जो पड़ रहा है। दीना तीन सालों में स्वयं भी मजदूरी करने जाते हैं। वह कहते हैं कि चाहे जो भी हो, लेकिन मैं पलायन पर नहीं करूंगा क्योंकि पलायन के लिये बाहर जाना पड़ता है और बाहर जाऊंगा तो फिर मेरे पेड़ों की रक्षा कौन करेगा। मेरे पेड़ सूख जायें, ये मैं सहन नहीं कर सकता। इस साल नियमित पानी के अभाव में उनके 10 पेड़ सूख गये। पेड़ सूखने पर वे निराश हैं- “जब पेड़ सूख गये तो भला मैं कैसे सुखी रह सकता हूं. मैं तो मरना पसंद करुंगा।” दीना कहते हैं कि मुझे यदि कुंआ खोद लेने दिया होता तो अभी तक दूना जंगल लगा देता। दीना ने सरपंच व जनपद पंच का चुनाव भी लड़ा ताकि जीतकर वे उस जमीन पर कुंआ खुदवा सकें। आज गांववालों के बीच में दीना और ननकी का अलग स्थान है। गांव वाले भी इनके कद्रदान हैं। समाज चेतना अधिकार मंच के रामनरेश व सियादुलारी कहते हैं कि प्रेमवन की महत्ता गांववालों के बीच इतनी है कि यहां पर बने स्वसहायता समूह का नाम भी महिलाओं ने प्रेमवन स्वसहायता समूह रखा है। वैसे तो दीना महज तीसरी तक पढ़े हैं और ननकी बाई निरक्षर, लेकिन अपने प्रेमवन से वनविभाग को आईना दिखाते हुये, धुरकुच जैसे छोटे से गांव से दुनिया को संदेश दे रहे हैं कि धरती बचानी है तो अपने से शुरू करो। केवल बहस मुबाहिसों से कुछ हासिल नहीं होगा।
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गांव की निरन्तर पेयजल आपूर्ति का दायित्व निर्वहन करती उज्जैन जनपद पंचायत की ग्राम पंचायत चंदेसरी | ||||||||||||||||||||
उज्जैन संभागीय एवं जिला मुख्यालय से 8 कि.मी. की दूरी पर देवास रोड़ पर स्थित ग्राम पंचायत चंदेसरी की वर्ष 2011 की जनगणनानुसार 398 परिवारों में 2026 लोग निवास करते है। नलजल योजना प्रारंभ होने के पूर्व ग्रामवासी प्रदूषित जल उपयोग करने को बाध्य थे। जिसके कारण कई प्रकार की बीमारियाँ हो रही थी, साथ ही गर्मियों में भू-जलस्तर गिरने के कारण कई हेंडपम्प का जलस्तर काफी नीचे चला जाता था। ग्राम की पेयजल व्यवस्था के समाधान के लिये ग्राम पंचायत एवं ग्रामसभा द्वारा लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग से ग्राम नल-जल योजना स्वीकृत कराने का निर्णय लिया गया। क्षेत्रीय ग्रामीण विकास प्रशिक्षण केन्द्र, उज्जैन के संकाय सदस्य श्री नागर द्वारा विगत दिवसों में प्रशिक्षण हेतु भेंट के दौरान ग्राम पंचायत के सचिव श्री प्रवीण शर्मा, सरपंच एवं |
श्री राजेश सोलंकी ने जानकारी में बताया कि लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के द्वारा 9.50 लाख की लागत से 25000 लीटर की पेयजल टंकी, वाटरबॉक्स, नलकूप एवं पेयजल आपूर्ति हेतु सप्लाई लाइन डालकर वर्ष 2005 में ग्राम पंचायत को योजना हस्तांतरित की गई है। पंचायत द्वारा 91 कनेक्शन गांव में दिये गये। जिनसे 50 रू. प्रति कनेक्शन प्रतिमाह जलकर निर्धारित है भविष्य में प्रतिमाह 75 रू. किया जाना प्रस्तावित है। ताकि सुखे कंठो की प्यास बुझाकर ग्राम पंचायत अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन भलीभांति कर सके।
इस प्रकार ग्राम पंचायत लोकतांत्रिक दायित्व का निर्वाहन करते हुए स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की व्यवस्था अपने स्तर पर करने के लिये प्रतिबद्ध होते हुए, शासन की समग्र स्वच्छता अभियान के अंतर्गत स्वच्छ पेयजल आपूर्ति करने के साथ-साथ अन्य घटकों जैसे-गंदे पानी की निकासी हेतु नाली निर्माण, नियमित साफ-सफाई की व्यवस्था, ठोस कूडे़-करकट का निदान इत्यादि पर भी विशेष ध्यान दे रही है तथा ग्राम पंचायत निर्मल ग्राम पुरस्कार प्राप्त करने की ओर निरन्तर प्रयत्नशील है।
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एकीकृत कार्ययोजना वाले जिलों में पदस्थ प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलोज का प्रशिक्षण | ||||||||||||||||||||
एकीकृत कार्ययोजना वाले जिलों में पदस्थ प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलोज का प्रशिक्षण दिनांक 25 से 27 जून की अवधि में किया गया। इस तीन दिवसीय अवधि में शासन की मंशा अनुसार इन्हें त्रिस्तरीय पंचायतीराज की अवधारणा व्यवस्था, उसका गठन संचालन प्रक्रिया एवं ग्रामीण विकास की हितग्राही मूलक योजनाओं के अलावा प्रतिभागियों की विशेष मांग अनुसार एनआरएचएम, ट्राईबल सब प्लान, माईनर फारेस्ट प्रोडयूस तथा उससे आजीविका कैसे प्राप्त कर सकते है इन विषयों की जानकारी दी गई। इस प्रशिक्षण में अतिथि वक्ता के रूप में कमिश्नर जबलपुर श्री दीपक खांडेकर, संचालक ग्रामीण रोजगार श्री जॉन किंग्सले, सुश्री जी.बी. रश्मि कलेक्टर डिण्डौरी, श्री संकेत भोंडवे मुख्य कार्यपालन अधिकारी जिला पंचायत सिवनी, श्री विशेष गढ़पाले मुख्य कार्यपालन अधिकारी, जिला पंचायत जबलपुर के अलावा डॉ. ममता दीवान प्रशिक्षक स्वास्थ्य परिवार कल्याण केन्द्र, |
श्री एम.एन. त्रिवेदी डिप्टी कंझरवेटर ऑफ़ फोरेस्ट, श्रीमति जया मिश्रा व्याख्याता एमएलटीसी, डॉ. अश्विनी कुमार अम्बर, प्रशासनिक अधिकारी, श्री एम.के जोशी सेवानिवृत्त संयुक्त संचालक, पंचायत, श्री विजय सराठे क्षेत्र संयोजक, आदिवासी कल्याण विभाग, श्रीमति मनीषा दवे परियोजना अधिकारी, विकास आयुक्त कार्यालय भोपाल द्वारा प्रशिक्षार्थियों को मार्गदर्शन दिया गया।
इस में सत्र समन्वयक का दायित्व संस्थान की वरिष्ठ संकाय सदस्य श्रीमति प्रीति वाखले द्वारा किया गया। इस प्रशिक्षण में विभिन्न विषयों पर वार्ता के साथ-साथ खेल, प्रेरणात्मक फिल्में तथा कई अभ्यास के माध्यम से प्रतिभागियों को व्यावहारिक तथा क्षेत्र में कार्य करने हेतु कई टिप्स भी दिये गये।
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प्रकाशन समिति | ||||||||||||||||||||
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